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रहस्य–मड़केश्वर मंदिर में आज तक कोई भी नहीं कर पाया दर्शन, पुजारी को भी दर्शन करने की नहीं इजाजत 

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पुरोला (uttarkashi)उत्तरकाशी जनपद के बड़कोट तहसील के बनाल छेत्र में एक ऐसा पौराणिक व रहस्यमय मंदिर स्थित है। जिसमें आज तक कोई भी व्यक्ति प्रवेश करके दर्शन नहीं कर पाया,आखिर इस पौराणिक मंदिर के अंदर ऐसा क्या है? यह मंदिर किस देवी/देवता का है?सदियों से अभी तक इस बारे में भी रहस्य ही बना हुआ है। लेकिन इस जगह की रहस्यमई और अविश्वनीय शक्ति इतनी है कि, आजादी के बाद, एक बार इस मंदिर की छत ढकने के लिए बनाल छेत्र के हज़ारों ग्रामीण इस जगह पहुंचे, तो तत्कालीन डीएफओ और वन कर्मियों ने ग्रामीणों को देवदार के हरे पेड़ काटने से रोक दीया। तभी डीएफओ,वन कर्मियों और मौजूदा ग्रामिणो के सामने भरी धूप में दर्जनों हरे देवदार के पेड़ जड़ से उखड़ गए। जिससे मंदिर की छत ढकी गई।

बड़कोट के गौल गांव में स्थित पौराणिक मड़केश्वर मंदिर

 

बड़कोट तहसील के बनाल छेत्र में गौल गांव में सदियों पुर्व का बना “पौराणिक रवाई शैली” में पत्थरों से निर्मित मडकेश्वर मंदिर का रहस्य आज भी बरकरार है। सदियों से आज तक इस मंदिर के अंदर कोई भी दर्शनार्थी दर्शन करने नहीं गया। यह मंदिर घनघोर देवदार के जंगलों के बिच पूर्व काल से ही निर्मित है। इस जगह का रहस्य इस बात से लगाया जा सकता है की, इस पौराणिक मंदिर के आसपास उगी झाड़ियों, घास को भी नहीं काटा जाता है यह पौराणिक रहस्मयमय मंदिर देवी का है या देवता का? यह भी रहस्य अभी तक बरकरार है। क्योंकि आज तक किसी ने भी गर्भ गृह में स्थित मूर्तियों को नहीं देखा। इंसान तो दूर इस मंदिर के अंदर देवता(पसुवा) भी प्रवेश करने से कतराते हैं। इस मंदिर की छत लकड़ी के तख्तों से ढकी है। जिसे एक कालांतर के बाद बदला जाता है। जिसके लिए छेत्र में प्रतिष्ठित पुर्व काल से एक मात्र गौड ब्राह्मण परिवार का मुखिया और अरुणा गांव के मिस्त्री (बढई) ही इस मंदिर तक (अपने रीति/नीति और कर्म में रहकर)एक विशेष दिन के लिए कार्य करने पहुंचते हैं । इन लोगों ने भी गर्भ गृह में विराजे मूर्तियों या अनजान शक्ति को नहीं देखा पाए। छेत्र के पुजेली गांव के बुजुर्ग 91 वर्षीय पंडित महिशरण सेमवाल, गौल गांव के 88 वर्षीय जयपाल सिंह पुराने दिनों को याद करते हुए बताते हैं की वर्ष 1943 में स्वर्गीय शिंणक्या दत्त गौड जी ने एक बार मडकेश्वर मंदिर की छत पर तख्ते बदलवाए थे और वर्ष 1998 में पंडित शिव प्रसाद गौड ने ,उनके देखते हुए ये दो लोग ही मंदिर के गर्भ गृह में पहुंच कर उस अदृश्य शक्ति/मूर्ति को कंडी में ढक कर गर्भ गृह से बाहर लाए थे। तब मंदिर के उपर के सड़े तख्तों को बदलकर नए तख्ते लगाए गए। उन दिनों को याद करते हुए, 88 वर्षीय जयपाल सिंह बताते हैं की पुर्व में मंदिर के लिए लकड़ी काटने की कोई पाबंदी नहीं थी, लेकिन 1998 में मंदिर की छत पर सड़े हुए तख्तों को बदलने के लिए वन विभाग बड़कोट ने दो देवदार के पेड़ काटने की परमिशन तो दी थी लेकिन, दो पेड़ की लकड़ी से छत ढकान का कार्य पूर्ण नहीं हो पा रहा था। और हजारों की संख्या में ग्रामीण कुल्हाड़ी,आरा आदी के साथ जंगल में ही मौजुद थे। तभी तत्कालीन डीएफओ बड़कोट आरसी मलाशी अपने दर्जनों कर्मचारीयों के साथ मौके पर पहुंच गए, और मौजूद ग्रामीणों को हरे पेड़ काटने से रोक दीया। मौजूद लोग परेशान दिख रहे थे, तभी देवता के पशुवा पर देवता प्रकट हुआ और वह कहने लगे कि चिंता करने की आवश्यकता नहीं है। और देखते ही देखते भरी दोपहरी में मंदिर के आस पास दर्जनों हरे देवदार के पेड़ जड़ सहित उखड़ गए जिसके अवशेष के रुप में आज वहां जड़ सहित मौजूद ठूंठ इस बात की गवाही पेश कर रही है। इस मंदिर के बहार परिसर में एक हवन कुंडिका है जिसमें वर्ष में एक बार देवलांग के मौके पर ही हवन किया जाता है।

गौल गांव में पौराणिक रवाई शैली में निर्मित ,प्राचीन कालीन मड़केश्वर मंदिर

पूर्व में इस स्थान को स्थानीय लोग “मडा” नाम से जानते थे। साथ ही पूर्व में मड़केश्वर मंदिर में पूजा अर्चना करने के लिए गडोली (गौड ब्राह्मण के गांव)से मड़केश्वर मंदिर तक पहुंचने के लिए लगभग चार किमी तक बड़ी सीढियां हुआ करती थी, जो एक बार बनाल छेत्र में आई भीषण आपदा के चलते दब गई थी। किसके प्रमाण आज भी खुदाई के दौरान अक्सर मिल जाया करते हैं।

वहीं पंडित शिव प्रसाद गौड (सेवारत शिक्षक) का कहना है कि मुझे वर्ष 1998 में (पौराणिक विरासत में) इस मंदिर के जीर्णोंद्वारा का सौभाग्य मिला,मेरे दादा शिणक्या दत्त गौड जी को वर्ष 1943 और उनके दादा (नाम ना मालूम ) भी इस मंदिर के जीर्णोंद्वारा के पुनीत कार्य करने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। लेकिन उन्हें मंदिर के अंदर गर्भ गृह में मौजूद मूर्ति/शक्ति के रुप के बारे में कोई भी स्मरण नहीं और न उनके पूर्वजों को था।साथ ही वह यह भी बताते हैं कि उनके दादा बताते थे की उनके पड़ दादा ने जब मडकेश्वर मंदिर की छत के तख्ते (लकड़ी) बदलवाई थी तो उसके सात दिन बाद ही वो स्वर्ग सिधार गए थे।

 क्या कहना है बाड़ाई (बढ़ई) लोगों का 

अरुणा गांव के बाड़ाई (बढ़ई) लोग ही इस मंदिर की छत पर तख्ते चढ़ाने व उतारने का कार्य करते आए हैं इस गांव में रहने वाले बाड़ाई (बढ़ई)जुड़ियाल जाती के ही होते हैं।गांव के नरेश जुड़ियाल ने बताते हैं कि जब मंदिर जीर्णोद्वार का कार्य शुरू हुआ तो, मुल्क पति राजा रघुनाथ और संकटारू महाराज के देव पशूवा ने कार्य करने के लिए उन लोगों का चुनाव किया और जब वह मंदिर के तख्तों को बदल रहे थे तो उन्हें कई बड़े सांप वहां दिखाई दिए, जिन्हें उन लोगों ने हाथों से हटाया लेकिन किसी को भी सांपों ने कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। इस दौरान स्व जगमोहन जुडियाल, स्व सोबेद्र जुडियाल, स्व जुदरिया जुडियाल, गोपीचंद जुडियाल, नागेंद्र जुडियाल, रघुवीर जुडियाल, जोगी जुडियाल ने छत ढकने का कार्य किया था। इस मडेश्वर मंदिर की पुर्व से बनी परंपरा यह है। कि मंदिर के गर्भ गृह में जाने वाला पुजारी भी मंदिर के उपर नहीं चढ़ सकता। इस दौरान उन्हें मंदिर का कार्य करने में 13 दिनों का समय लग गया था।

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